इस बार दो साल बाद में मैसूरु गयी थी। कारण – ऐसे ही। बैंगलोर तक गयी थी तोह सोचा मैसूरु हो आती हूँ। बस में बैठे बैठे यूँही ढूंढा “थिंग्स टू डो इन मैसूरु ” . जवाब मिला ” र क नारायणा होम “। तोह बस फिर क्या था उठाया बिस्तरा और चल दिए। उस घर में क्या क्या था वो तोह शायद कुछ खास मायने नहीं रखता। क्यूंकि उन चीज़ो का अहसास तोह तब ही होगा जब वहाँ जाया जाएगा। पर उस घर में घुसते साथ ही ऐसा लगा मानो नारायण सर आज भी वही कही बस्ते है। जैसे जब भी कोई उस घर में आता होगा तोह वो उसे खुद अपने घर में रखी चीज़े दिखाते है। मनो कोई मेहमान आया हो। उस एक घंटे में मुझे ऐसा लगा जैसे हर उस पल में जब नारयण सर अपनी बात बता रहे थे , मैं भी वही कही थी। जब उनकी बेटी का देहांत हुआ तोह लगा उस पल में थी में उनके साथ। शयद यही फरक होता है एक घर और मकान में। अगर र क नारायण का म्यूजियम किसी अनजान जगह पर होता तोह शायद वो अहसास न होता। क्यूंकि वो उनके अपने घर में था , तोह लगा मानो वो आज भी उस घर में ज़िंदा है।
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| past is gone, the present is going and tomorrow is a day after tomorrow yesterday. So, why worry about anything?? God is in all this! |
मेरे लिए इस वाकया ने चीज़ो को बदल के रखा। या फिर कहा जा सकता है की उन्ही चीज़ो को नया मायना दिया। ज़िन्दगी वो नहीं जो कल थी, न वो है जो कल होगी , जिंदगी आज में है , और उस आज में भगवान तुम्हारे साथ है।
तोह क्या सबको नारयण सर के घर जाना चाइये ! मर्ज़ी है। पर जाना तभी जब दिल बोले।



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